Thursday, February 12, 2009

छोड़ कर वो मेरा घर वो किसके घर जायेगा,
दर्द को और न समजाओ वो मर जायेगा..

दानिश्वर ये तेरी खिरद का खेल नहीं,
दिल ने जो भी करना हे वो कर जायेगा...

इतना प्यार दिखा मत अपने दुश्मन से,
ये दिल जला किसी दिन तुझ पर मर जायेगा..

प्यार बाँट कर के देखो सारी दुनिया से,
दिल का दामन भरते भरते भर जायेगा..

मौत सजा के जिस दिन अपना रथ लाई,
ये घर छोड़ के अंजुम अपने घर जायेगा....
नाम आये तो सारा तन महके,
ज़िक्र से तेरे अंजुमन महके;

खौफ तुजे नहीं हे कांटो का,
तेरे पेरो की हर चुभन महके..

जीत की जब सुने खबर अजीज,
उसका दिल झूमे तन-बदन महके,

मेरी यादो की तरफ खीच लाये तुझे,
खयालो की उस राह पे तेरा हर कदम महके..

गर ले भी जाये तुमसे दूर हमें,
तेरे ख्वाबो में बस हम ही महके...

.......तन्हा चाँद....

पूरा दुःख और आधा चाँद, हिज्र की शब् और ऐसा चाँद;
दिन में वहशत बहल गई थी,रात हुई और निकला चाँद ;

किस मलकत से गुजरा होगा ,इतना सहमा सहमा चाँद,
यादो की आबाद गली में,घूम रहा हे तन्हा चाँद;

मेरी करवट पे जाग उठे,नींद का कितना कच्चा चाँद,
मेरे मुख को किस हैरत से,देख रहा है भोला चाँद;

इतने घने बादल के पीछे,कितना तन्हा होगा चाँद;
आंसू रोके नूर नहाये, दिल दरिया तन सहरा चाँद,

इतने रोशन चेहरे पर भी,सूरज का है साया चाँद,
जब पानी में चेहरा देखा,तुने किसको समझा चाँद,

रात के शानो पे सर रख्हे देख रहा है सपना चाँद;
सूखे पत्तो की झुरमुट में,शबनम थी या नन्हा चाँद,

हाथ हिला कर रुखसत होगा,उसकी सूरत हिज्र का चाँद,
सहरा सहरा भटक रहा हे,अपने इश्क में सच्चा चाँद........

...तन्हा....

चाँद तन्हा हे आसमां तन्हा
दिल मिला कहाँ कहाँ तन्हा
बुझ गई आस छुप गया तारा
थरथराता रहा धुंआ तन्हा...

जिंदगी क्या इसी को कहते है
जिस्म तन्हा है जाँ तन्हा,
हमसफ़र गर मिले भी कही ,
चलते रहे दोनों यहाँ तन्हा...

झलती बुझती सी रौशनी से परे,
सिमटा सिमटा सा एक मकां तन्हा,
राह देखा करेगा सदियों तक,
छोड़ जायेंगे ये जहा तन्हा...

...शाम हो जाये...

हमारा दिल सवेरे का सुनहरा जाम हो जाये,
चिरागों की तरह आँखे जले जब शाम हो जाये,
में खुद भी एहतियातन उस गली से कम गुजरता हु,
कोई मासूम क्यों इस दिल के लिए बदनाम हो जाये...

अजब हालत थे यु दिल का सोदा हो हो गया आखिर,
मोहब्बत की हवेली जिस तरह नीलाम हो जाये,
संदर के सफ़र में इस तरह आवाज दो हमको,
की हवाए तेज़ हो और किश्तियों में शाम हो जाये...

मुझे मालुम है उसका ठिकाना फिर कहा होगा,
परिंदा जब आसमान छूने में नाकाम हो जाये,
उजाले अपनी यादो के साथ रहने दो हमारे,
न जाने किस गली में ज़िन्दगी की शाम हो जाये...

हां! हु मै भी....

सच तो यह हे की गुमां हु में भी,
तू नहीं तो कहा हु में भी ,
जिनमे जल बुझ गए अहबाब मेरे,
उन मकानों का धुआ हु में भी...

याद करता हु पुरानी बाते,
सोचता हु जवा हु मै भी,
मुजमे रहती हे ये परिया कैसी ,
क्या कोई अँधा कुआ हु मै भी....

झूठ ही झूठ भरा हे मुझमे,
किसी मुजरिम की बया हु मै भी,
ख्वाब मै देखकर तुझको ,
ऐसा लगता हे, हां! हु मै भी....

..कहा हु में....

न शाम हे न सवेरा हे,अजब दयार में हु;
मै एक अरसाए बेरंग के हिसार मै हु,...

सिपाहे गैर ने कब मुझे जख्म जख्म किया
मै आप ही अपनी सासों की कारजार मै हु ...

कशा कशा जिसे ले जायेंगे सरे मकतल ;
मुझे खबर हे की मै उसी कतार मै हु...

अता पता किसी खुशबु से पूछ लो मेरा;
यही कही किसी मंजर,किसी बहार मै हु ..

न जाने कोन से मोसम मै फूल महकेंगे;
न जाने कब से तेरे चश्म-ऐ- इन्तजार मै हु...

शरफ मिला हे कहा तेरे हमराही का मुझे ;
तू शहसवार और मै तेरे गुबार मै हु.....

....शाम-ऐ-फिराक ....

शाम-ऐ-फिराक अब ना पूछ , आई और आके टल गई,
दिल था की फिर बहल गया ,जाँ थी की फिर संभल गई.....

बज्म-ऐ-ख्याल में तेरे, हुस्न की शमा जल गई,
दर्द का चाँद बुज गया,हिज्र की रात ढल गई..

तुजे याद कर लिया,सुबह महक महक गई;
जब तेरा गम जगा लिया,रात मचल मचल गई...

दिल से तो हर मुआमला,करकेचले थे साफ़ हम;
कहने में उनके सामने,बात बदल बदल गई...

आखिर-ऐ-शब् के हमसफ़र,'कैज' न जाने क्या हुए;
रह गई किस जगह सबा,सुबह किधर निकल गई....

...यही जिंदगी हे...कभी धुप,कभी छाव...

ना कर शुमार की हर शेह गिनी नहीं जाती..
ये जिंदगी हे मेरे दोस्त....हिसाबो से जी नहीं जाती.....

यु तो शाख से पत्ते गिरा नहीं करते...
बिछड़ के भी लोग ज्यादा जिया नहीं करते...
आने वाले हर मोसम को शुमार करो...
जो दिन गुज़र गए उन्हें गिना नहीं करते

...ख्वाब हे.....

तेरे होठो पे हंसी बनने का ख्वाब हे..
तेरे आगोश में सिमट जाने का ख्वाब हे..
तू लाख बचाले दामन इश्क के हाथो से
आसमा बनके तुज्पे छा जाने का ख्वाब हे..
आजमाइश यु तो अच्छी नहीं होती प्यार में ..
तू चाहे तो तेरी तकदीर बनने का ख्वाब हे ..
वो मौत भी लोट जाये तेरे दरवाजे पर आकर..
तुझको इसी जिंदगी देने का ख्वाब हे..
जी भी लेंगे अगर जीना पड़े तेरे बिन...
लेकिन तुज्पर तो मर मिटने का ख्वाब हे....
गुलाबो की तरह दिल अपना शबनम में भिगोते हे...
मुहोब्बत करने वाले खुबसूरत होते हे.....

किसी ने जिस तरह अपने सितारों को सजाया हे...
ग़ज़ल के रेशमी धागों में यु मोती पिरोते हे...

पुराने मोसम के नामे नामी मिटते जाते हे...
कही पानी,कही शबनम, कही आसू भिगोते हे...


यही अंदाज़ हे मेरा समंदर फतह करने का..
मेरी कागज़ की कश्ती में कई जुगनू भी होते हे...


सुना था हम महफिलों की जान होते थे...
बोहोत दिनों से अब पत्थर हे न हस्ते हे न रोते हे...
बाला से वो दुश्मन हुआ हे किसी का
वो काफिर सनम क्या खुदा हे किसी का...

किसी की तपिश में ख़ुशी हे किसी की
किसी की खलिश में मज़ा हे किसी का...

बचे जान किस तरह तेरी अदा से
कज़ा पे कही बस चला हे किसी का...

मेरी इल्ल्तिज़ा पर बिगड़कर वो बोले
नहीं मानते,इसमें क्या हे किसी का...

तू न जाने ,न जाने ,न जाने
तुजे दाग दिल जानता हे किसी का...
अक्स-ऐ-खुशबु बिखरने से न रोके कोई
और गर बिखर जाऊ तो मुजको न समेटे कोई...

कॉप उठती हु में ये सोचके तन्हाई में
मेरे चेहरे पे तेरा नाम न पढ़ले कोई..

जिस तरह से ख्वाब मेरे हो गए रेजा रेजा
इस तरह से न कभी टूट के बिखरे कोई ..


अब तो इस राह से वो शख्स गुजरता भी नहीं
अब किस उम्मीद से दरवाजे पे जाके कोई ...

कोई आहट, कोई आवाज,कोई चाह नहीं
दिल की गलिया सुनी हे,आये कोई...

Wednesday, February 11, 2009

..आदत ना हो....

तेरे होठो पे तबस्सुम की वो हलकी से लकीर
मेरे तख्हील में रह रह कर जलक उठती हे
यु अचानक तेरे आरीज़ का ख्याल आता हे
जेसे जुल्मत में कोई शमा भड़क उठती हे ....

तेरे परहने रंगी की वो जुनुखेज महक
ख्वाब बनके मेरे जेहन में लहराती हे
रात की सर्द खामोशी में हर एक जोके से
तेरे अन्फाज़ ,तेरे जिस्म की आच आती हे....

में सुलगते हुए राजो को अया तो कर दू
लेकिन इन राजो की ताशहीर से जी डरता हे
रात के ख्वाब उजालो में बया तो कर दू
इन हसी ख्वाबो की ताबीर से जी डरता हे..

तेरे सांसो की थकन, निगाहों का सुकूत
दर हकीकत कोई रंगी शरारत ना हो
हम जिसे प्यार का अंदाज़ समाज बेठे हे
वो तकल्लुफ ,वो तबस्सुम तेरी आदत ना हो ...

.....नज़ारा करेंगे हम ....

यु कभी कभी तो नज़ारा करेंगे हम
पहना करो नकाब उतारा करेंगे हम

महताब की ज़मी पर पसीने को देखना
जब नाम लेके तुमको पुकारा करेंगे हम

हमसे इबादतों में कमी रही अगर
रह -रहके अपने माथे पे मारा करेंगे हम

मंजील से मिल सका न घर हमें कोई जवाब
मुड-मुड के तुमको पुकारा करेंगे हम

वक़्त-ए-सहर जो रात की लौ जिलमिला गई
उठ कर तुम्हारी जुल्फ सवारा करेंगे हम...

...मधुशाला .....

म्रदु भावो के अंगूरों की,आज बना लाया हाला,
प्रियतम अपने ही हाथो से,आज पिलाऊंगा प्याला;
पहले भोग लगा लू तुझको, फिर प्रसाद जग पायेगा,
सबसे पहले तेरा स्वागत करती मेरी मधुशाला......

प्यास तुजे तो विश्व तपाकर,पूर्ण निकालूँगा हाला,
एक पाव से साकी बनकर,नाचूँगा लेकर प्याला,
जीवन की मधुता तो तेरे ऊपर कब का वार चूका,
आज न्योछावर कर दूंगा में,तुज पर जग की मधुशाला.....

मदिरालय जाने को घर से,चलता है पीने वाला.
"किस पथ से जाऊ"असमंजस में है वो भोला-भाला,
अलग-अलग पथ बतलाता है सब,पर मै यह बतलाता हु,
राह पकड़ तू एक चला चल ,पा जायेगा मधुशाला

मदीरा पीने की अभिलाषा ही बन जाये जब हाला,
अधरों की आतुरता में ही जब आभिसित हो प्याला,
बने ध्यान ही करते करते,जब साकी साकार,सूखे,
रह न हाला,प्याला साकी तुजे मिलेगी मधुशाला....

दुत्कारा मस्जीद ने मुजको,कहकर हे पीने वाला,
ठुकराया ठाकुरद्वारे ने देख हथेली पर प्याला,
कहा ठिकाना मिलता जग में भला अभागे कफीर को,
शरंस्थाली बनकर न मुझे यदि अपना लेती मधुशाला....


चलने ही चलने में कितना जीवन हाय बिता डाला ,
'दूर अभी हे' पर कहता हर पथ बतलाने वाला,
हिम्मत हे न बढू आगे को,साहस है न फिर पीछे को,
कीं-कर्तव्य विमूढ़ मुझे ,दूर खड़ी हे मधुशाला...

मुख से तू अविरल कहता जा,मधु,मदीरा,मादक हाला,
हाथो में अनुभव करता जा ,एक ललितकल्पित प्याला
ध्यान किये जा मन में समधुर ,सुखकर सुन्दरसाकी का,
और बढा चल,पथिक न तुझको दूर लगेगी मधुशाला..

मुसलमान ओ हिन्दू हे दो ,एक मगर उनका प्याला,
एक मगर उनका मदिरालय ,एक मगर उनका हाला..
दोनों रहते एक न जब तक ,मंदीर मस्जिद में जाते ,
बेर बढ़ते मंदिर मस्जिद,मेल कराती मधुशाला...

वही वारुणी जो थी सागर,मथकर निकली अब हाला,
रम्भा की संतान जगत में,कहलाती साकी हाला,
देव-अदेव जिसे ले आये,संत महंत मिटा देंगे,
किस्म कितना दम-ख़म,इसको खूब समजाती मधुशाला...

यम आएगा साकी बनकर ,साथ लिए काली हाला,
पी न होश में फिर आएगा,सुरा विसुध यह मतवाला,
यह अन्तिम बेहोशी अन्तिम,साकी अन्तिम हे प्याला,
पथिक प्यार से पीना इसको,फिर न मिलेगी मधुशाला....

मेरे शव पे वह रोये,हो जिसके आसू हे हाला,
आह भरे वह,जो हो सुरभित ,मदिरा पीकर मतवाला,
दे मुजको वे कन्धा जिनके,पद डग-मग होते हो,
और जलु उस ठौर जहा पर,कभी रही हो मधुशाला..

बूंद-बूंद के हेतु कभी,तुझको तरसाएगी हाला,
कभी हाथ से चीन जायेगा,तेरा यह मादक प्याला,
पीने वाले ,साकी की मीठी बातो में मत आना,
मेरे भी गुण यु ही गाती एक दिवस थी मधुशाला..

कहा गया वः स्वर्गिक साकी,कहा गई सुरभित हाला,
कहा गया स्वप्निल मदिरालय,कहा गया स्वर्णिम प्याला,
पीने वालो ने मदिरा का मूल्य हाय कब पहचाना,
फुट चूका जब मधु का प्याला,टूट चुकी जब मधुशाला...

कुछ न कुछ तो कह जाता हे आखो का भर आना भी....

कोई कहानी,कोई किस्सा, गम का कोई अफसाना भी;
कुछ न कुछ तो कह जाता हे आखो का भर आना भी....

कुछ आसू बह जाते हे तो जी हल्का हो जाता है ;
गम को और हवा देता हे लोगो का समजाना भी...

अपनों ने जो ज़ख्म दिए है काश कभी ना भर पाए;
अच्छा लगता है अक्सर ,ज़ख्मो को सहलाना भी ...

आसू पीना ,लब को सीना ये तो हमको आता था;
जाने केसे सीख गए हम दिल के ज़ख्म छुपाना भी.....

Tuesday, February 10, 2009

दे के आवाज गम के मारो को

दे के आवाज गम के मारो को
मत परेशा करो बहारो को...

इन्हें शायद मिले सुराग-ऐ- हयात
आओ सिजदा करे मजारो को....


वो खिजा से हे शर्मिंदा
जिसने रुसवा किया बहारो को

दिलकशी देखके तलातुम की
हमने देखा नहीं बहारो को....

हम खीजा से गले मिले अंजुम
लोग रोते रहे बहारो को.....