Wednesday, February 11, 2009

..आदत ना हो....

तेरे होठो पे तबस्सुम की वो हलकी से लकीर
मेरे तख्हील में रह रह कर जलक उठती हे
यु अचानक तेरे आरीज़ का ख्याल आता हे
जेसे जुल्मत में कोई शमा भड़क उठती हे ....

तेरे परहने रंगी की वो जुनुखेज महक
ख्वाब बनके मेरे जेहन में लहराती हे
रात की सर्द खामोशी में हर एक जोके से
तेरे अन्फाज़ ,तेरे जिस्म की आच आती हे....

में सुलगते हुए राजो को अया तो कर दू
लेकिन इन राजो की ताशहीर से जी डरता हे
रात के ख्वाब उजालो में बया तो कर दू
इन हसी ख्वाबो की ताबीर से जी डरता हे..

तेरे सांसो की थकन, निगाहों का सुकूत
दर हकीकत कोई रंगी शरारत ना हो
हम जिसे प्यार का अंदाज़ समाज बेठे हे
वो तकल्लुफ ,वो तबस्सुम तेरी आदत ना हो ...

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